■ प्रकाशित कृतियाँ :
(1) नवगीत संग्रह- “हौसलों के पंख" (2013-अंजुमन प्रकाशन)
(2) ई बुक- मूल जगत का,बेटियाँ-(तीन छंद-दोहे कुण्डलिया व कहमुकरियाँ)-(2015-ऑनलाइन गाथा)
(3)गीत-नवगीत- संग्रह-“खेतों ने ख़त लिखा”(2016-अयन प्रकाशन)
(4) ग़ज़ल संग्रह- संग्रह मैं ‘ग़ज़ल कहती रहूँगी’(2016अयन प्रकाशन)
(1) नवगीत संग्रह- “हौसलों के पंख" (2013-अंजुमन प्रकाशन)
(2) ई बुक- मूल जगत का,बेटियाँ-(तीन छंद-दोहे कुण्डलिया व कहमुकरियाँ)-(2015-ऑनलाइन गाथा)
(3)गीत-नवगीत- संग्रह-“खेतों ने ख़त लिखा”(2016-अयन प्रकाशन)
(4) ग़ज़ल संग्रह- संग्रह मैं ‘ग़ज़ल कहती रहूँगी’(2016अयन प्रकाशन)
*पुरस्कार व सम्मान
पूर्णिमा वर्मन(संपादक वेब पत्रिका-“अभिव्यक्ति-अनुभूति”)द्वारा मेरे प्रथम नवगीत संग्रह पर नवांकुर पुरस्कार
पूर्णिमा वर्मन(संपादक वेब पत्रिका-“अभिव्यक्ति-अनुभूति”)द्वारा मेरे प्रथम नवगीत संग्रह पर नवांकुर पुरस्कार
■ संप्रति :
वर्तमान में 14 वर्षों से वेब पर प्रकाशित होने वाली पत्रिका/अभिव्यक्ति
अनुभूति(संपादक/पूर्णिमा वर्मन) के सह-संपादक पद पर कार्यरत हूँ।
वर्तमान में 14 वर्षों से वेब पर प्रकाशित होने वाली पत्रिका/अभिव्यक्ति
अनुभूति(संपादक/पूर्णिमा वर्मन) के सह-संपादक पद पर कार्यरत हूँ।
■ स्थायी पता :
अमरलाल रोचवानी
बी-209
सतराम सिंधी कॉलोनी
उज्जैन-मध्यप्रदेश
अमरलाल रोचवानी
बी-209
सतराम सिंधी कॉलोनी
उज्जैन-मध्यप्रदेश
■ वर्तमान पता-
कल्पना रामानी
c/o-Ajay Ramani- Mo.07303425999
1601 /6 हेक्स ब्लॉक्स,सेक्टर-10
खारघर, नवी मुंबई -410210
चलभाष : 07498842072
■ ई मेल -kalpanasramani@gmail.com
*ब्लॉग-http://kalpanaramanis.blogspot.in
कल्पना रामानी
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खारघर, नवी मुंबई -410210
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■ ई मेल -kalpanasramani@gmail.com
*ब्लॉग-http://kalpanaramanis.blogspot.in
। । विशेषांक पर एक दृष्टि ।।
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वाट्सएप पर संचालित 'संवेनात्मक आलोक' नवगीत साहित्य विचार समूह के बुधवारीय विशेषांक 'आज का रचनाकार' में इस बार एक ऐसी प्रतिभा को आप समस्त सुधी पाठकों के समक्ष चर्चार्थ प्रस्तुत कर रहे हैं, जिनकी शिक्षा-दीक्षा कुल हाई स्कूल, लेखन की दुनिया में आयु के सातवें दशक में अपना पहला कदम रखा, फिर जिनका इलक्ट्रॉनिक या प्रिंट मीडिया से ज्यादा सरोकार नहीं रहा। वे अपनी शारीरिक परेशनियों, रोग व्याधियों से जूझते लड़ते हुये अपनी लेखनी को बिना किसी छटपटाहट के स्वानुभूत पीड़ा को शब्दों में बाँधने का निरंतर प्रयास करती रही हैं, उनकी रचनाओं में आम जन-जीवन का यथार्थ सच अपनी समय काल परिस्थितियों को लेकर एक सुन्दर सी झाँकी प्रस्तुत करता चलता है।
आदर.कल्पना रामानी एक ऐसी कवयित्री हैं जिनकी लेखनी को उनकी शारीरिक विकलांगता (श्रवण शक्ति में कमी) प्रभावित करने की बजाय उन्हें उत्प्रेरित करती है। उनकी सकारात्मक चिंतन, संवेदनागत अनुभूतियों की जीवटता ने उनकी कहन, शिल्प, शैली, रंग, रूप, को स्वर देकर उन्हें और विशिष्ट बना देता हैं। कवयित्री कल्पना रामानी की रचनाएँ पाठक मन को उद्वेलित कर उसे कुछ सोचने को मजबूर करती हैं, उनकी रचनाओं से संवेदात्मक आलोक समूह पटल निश्चित रूप से समृद्ध हुआ है। हम कल्पना रामानी जी के स्वस्थ सुखद जीवन के साथ उनके उज्जवल भविष्य की मंगल कामना करते हैं।
जब रविवार या फिर बुधवार आता है तो एक दिन पहले से दिमाग में चलने लगता है कि विशेषांक में लेने के लिये किस रचनाकार से संपर्क करें। इस सिलसिले में मैंने कल्पना रामानी जी के मोबाईल पर उनसे बात की, तो उनने बताया मैं आपकी कोई बात नहीं सुन समझ पा रही हूँ। लंबी बीमारी के कारण मेरे कानों में सुनने की शक्ति नहीं रह गई है। आप ऑनलाइन रहिए मैं फेसबुक मैसेंजर पर आपसे सन्देश भेजकर बात करती हूँ। मुझे उन्हें समझाने में ज्यादा समय नहीं लगा। वे हमारा उद्देश्य सुनकर बहुत प्रसन्न हुईं और कहा- आप जैसा समृद्ध रचनाकार मेरे जैसी छोटी मोटी कवयित्री को तलाश कर 'संवेदनात्मक आलोक' के गौरवशाली मंच पटल पर मेरे ऊपर विशेषांक केंद्रित करे, इससे बड़े सौभाग्य की बात मेरे लिये और क्या हो सकती है। मैं आपको ह्रदय धन्यवाद ज्ञापित करती हूँ।
आज के विशेषांक में प्रस्तुत कवयित्री की रचनाओं पर समस्त सुधी पाठकों, मूर्धन्य रचनाकारों के भाव एवं विचार समीक्षात्मक टिप्पणी के रूप में सादर आमंत्रित किये जाते हैं। दिनाँक 30 मार्च 2016
वाट्सएप माबाईल : 097525-39896
वाट्सएप माबाईल : 097525-39896
रामकिशोर दाहिया
प्रमुख एडमिन
'संवेदनात्मक आलोक'
नवगीत सा.विचार समूह
📚📚📚✍✍
गीत-
प्रमुख एडमिन
'संवेदनात्मक आलोक'
नवगीत सा.विचार समूह
📚📚📚✍✍
गीत-
। एक ।।
।। उड़ परिंदे ।।
•••
उड़ परिंदे!
आ रहा पीछे शिकारी।
•••
उड़ परिंदे!
आ रहा पीछे शिकारी।
देख उसके हाथ में वो जाल है।
जेब है फूली, मगर कंगाल है।
तू धनी, संतुष्ट मन तेरा सदा
वो सदा ही भूख से बेहाल है।
जेब है फूली, मगर कंगाल है।
तू धनी, संतुष्ट मन तेरा सदा
वो सदा ही भूख से बेहाल है।
अरे, चल दे!
पंख नोचेगा भिखारी।
पंख नोचेगा भिखारी।
जीव हत्या उस वधिक का लक्ष्य है।
जीव का ही रक्त उसका भक्ष्य है।
आसमाँ तेरा, सदा आज़ाद तू
जा वहाँ जिस छोर पर तू रक्ष्य है।
जीव का ही रक्त उसका भक्ष्य है।
आसमाँ तेरा, सदा आज़ाद तू
जा वहाँ जिस छोर पर तू रक्ष्य है।
जाग बंदे!
वरन कटने की है बारी।
वरन कटने की है बारी।
जाल में दाने बिछाकर वो खड़ा।
मौत की दावत तुझे देने अड़ा।
देख लालच में न आना जान ले।
धूर्त,पापी, है कुटिल कातिल बड़ा।
मौत की दावत तुझे देने अड़ा।
देख लालच में न आना जान ले।
धूर्त,पापी, है कुटिल कातिल बड़ा।
उस दरिंदे
की सदा खाली पिटारी।
की सदा खाली पिटारी।
■ कल्पना रामानी
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।। दो ।।
।। दीनों के संस्कार ।।
कागा रे!
मुंडेर छोड़ दे
मत मेहमान पुकार।
मुंडेर छोड़ दे
मत मेहमान पुकार।
चूल्हा ठंडा, लकड़ी सीली
चढ़ी न चौके दाल पनीली।
शेष नहीं मुट्ठी भर आटा
औंधे सोए तवा पतीली।
चढ़ी न चौके दाल पनीली।
शेष नहीं मुट्ठी भर आटा
औंधे सोए तवा पतीली।
क्या खाएगा प्रियम पाहुना
कुछ कर सोच-विचार।
कुछ कर सोच-विचार।
एक कोठरी दस बाशिंदे
मैला बिस्तर चिंदे चिंदे।
पलकें बंद न होतीं पल भर।
चर्म चाटते मुए पतंगे।
मैला बिस्तर चिंदे चिंदे।
पलकें बंद न होतीं पल भर।
चर्म चाटते मुए पतंगे।
मच्छर चखते रक्त, रेंगते
खटमल बना कतार।
खटमल बना कतार।
काँव काँव की टेर छोड़ दे।
इस घर से यह चोंच मोड़ दे।
नहीं चाहती अपमानित हो
आगत घर का द्वार छोड़ दे।
इस घर से यह चोंच मोड़ दे।
नहीं चाहती अपमानित हो
आगत घर का द्वार छोड़ दे।
काग सयाने, तू क्या जाने
दीनों के संस्कार।
दीनों के संस्कार।
■ कल्पना रामानी
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।। तीन ।।
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।। तीन ।।
।। नातों की परिभाषाएँ ।।
•••
ऊँचे पद के मद में जिनके
चले शहर को पाँव।
नहीं चाहते कभी लौटना
वापस अपने गाँव।
•••
ऊँचे पद के मद में जिनके
चले शहर को पाँव।
नहीं चाहते कभी लौटना
वापस अपने गाँव।
याद नहीं अब गाँव उन्हें जो
होते उनके जन्में।
फिर आने की मात-पिता को
देकर जाते कसमें।
नहीं लुभातीं अब उनको, वो
धूल सँजोई गलियाँ
नहीं रहा आसान छोडना
शहरों की रंग-रलियाँ।
होते उनके जन्में।
फिर आने की मात-पिता को
देकर जाते कसमें।
नहीं लुभातीं अब उनको, वो
धूल सँजोई गलियाँ
नहीं रहा आसान छोडना
शहरों की रंग-रलियाँ।
छोड़ चमाचम गाड़ी कैसे
घूमें पैदल पाँव।
घूमें पैदल पाँव।
फैशन भूल नए शहरों के
तितली सी बहुरानी
भिनसारे उठ भर पाएगी
क्या वो नल से पानी?
शापिंग मॉल, शार्ट पहनावा
सजी-धजी गुड़िया सी
कैसे जाए गाँव दुल्हनियाँ
बनकर छुई-मुई-सी।
तितली सी बहुरानी
भिनसारे उठ भर पाएगी
क्या वो नल से पानी?
शापिंग मॉल, शार्ट पहनावा
सजी-धजी गुड़िया सी
कैसे जाए गाँव दुल्हनियाँ
बनकर छुई-मुई-सी।
किटी पार्टियों की आदी क्यों
दाबे बूढ़े पाँव।
दाबे बूढ़े पाँव।
छोटे फ्लैट, मगर सुन्दर हैं
टाउनशिप की बातें।
काम-काज में दिन कटते हैं
रंग-बिरंगी रातें।
क्लब हाउस हैं, तरणताल हैं
सजी हुई फुलवारी।
भूल गए रिश्ते नातों की
परिभाषाएँ सारी।
टाउनशिप की बातें।
काम-काज में दिन कटते हैं
रंग-बिरंगी रातें।
क्लब हाउस हैं, तरणताल हैं
सजी हुई फुलवारी।
भूल गए रिश्ते नातों की
परिभाषाएँ सारी।
गाँवों में बस गीत रह गए
और गीत में गाँव।
और गीत में गाँव।
■ कल्पना रामानी
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।। चार ।।
।। सावन का सत्कार ।।
•••
जाने कौन दिशा से आए
बादल मेरे द्वार।
सारे जतन किए मौसम के
मन से हूँ तैयार।
•••
जाने कौन दिशा से आए
बादल मेरे द्वार।
सारे जतन किए मौसम के
मन से हूँ तैयार।
भर भंडार अनाज सहेजा
डिब्बों में भर लिया मसाला।
पशु-धन रहे न भूखा उनका
समुचित चारा, चना सँभाला।
डिब्बों में भर लिया मसाला।
पशु-धन रहे न भूखा उनका
समुचित चारा, चना सँभाला।
वस्त्र सुखाने रस्सी बाँधी
छुए न ज्यों बौछार।
छुए न ज्यों बौछार।
आड़े समय साथ दें ऐसी
कुछ सागों को चुना, सुखाया।
कुछ स्थान मुरब्बों ने भी
भरे रसोई घर में पाया।
कुछ सागों को चुना, सुखाया।
कुछ स्थान मुरब्बों ने भी
भरे रसोई घर में पाया।
सबसे आगे आकर जम गए
पापड़, बड़ी, अचार।
पापड़, बड़ी, अचार।
सारे गमलों को सरका कर
कोने में कर लिया सुरक्षित
और क्यारियों को कर डाला
जल निकास के लिए व्यवस्थित।
कोने में कर लिया सुरक्षित
और क्यारियों को कर डाला
जल निकास के लिए व्यवस्थित।
कीट न बोलें हल्ला इन पर
ऐसा किया जुगाड़।
ऐसा किया जुगाड़।
बेलों वाली चुनी सब्जियाँ
बीज बो दिये डोरी तानी।
भर मौसम होगी भरपाई
जब आएगी बरखा रानी।
बीज बो दिये डोरी तानी।
भर मौसम होगी भरपाई
जब आएगी बरखा रानी।
झूल झूलते गीत करेंगे
सावन का सत्कार।
सावन का सत्कार।
■ कल्पना रामानी
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।। पाँच ।।
।। घर का गणित ।।
•••
•••
दिनचर्या
के गुणा-भाग से
रधिया ने नवगीत रचा।
के गुणा-भाग से
रधिया ने नवगीत रचा।
जाग, जगा प्रातः तारे को
प्रथम सँभाली कर्म-कलम
भरी विचारों की स्याही
चल पड़ी उठा लयबद्ध कदम
प्रथम सँभाली कर्म-कलम
भरी विचारों की स्याही
चल पड़ी उठा लयबद्ध कदम
लेखा-जोखा
घर-घर का था
रहा हृदय में द्वंद्व मचा।
घर-घर का था
रहा हृदय में द्वंद्व मचा।
श्रम बूँदों के रहे बिगड़ते-
बनते चित्र कवित्त भरे
अक्षर-अक्षर रही जोड़ती
रधिया रानी धीर धरे
बनते चित्र कवित्त भरे
अक्षर-अक्षर रही जोड़ती
रधिया रानी धीर धरे
धार-धार
धुलते भांडों पर
दो हाथों को नचा-नचा।
धुलते भांडों पर
दो हाथों को नचा-नचा।
ढला दिवस, खींची लकीर
पर गीत अधूरा है तब तक
जोड़-तोड़ कर पूरा होगा
घर का गणित नहीं जब तक
पर गीत अधूरा है तब तक
जोड़-तोड़ कर पूरा होगा
घर का गणित नहीं जब तक
लिख देगी
अब रात नींद ही
जो कुछ भी है शेष बचा।
अब रात नींद ही
जो कुछ भी है शेष बचा।
■ कल्पना रामानी
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।। छः ।।
।। क्रूर कोड़ा ।।
•••
क्यों चले आए शहर
बोलो श्रमिक क्यों गाँव छोड़ा?
•••
क्यों चले आए शहर
बोलो श्रमिक क्यों गाँव छोड़ा?
पालने की नेह डोरी
को भुलाकर आ गए।
रेशमी ऋतुओं की लोरी
को रुलाकर आ गए।
को भुलाकर आ गए।
रेशमी ऋतुओं की लोरी
को रुलाकर आ गए।
छान-छप्पर छोड़ आए
गेह का दिल तोड़ आए
सोच लो क्या-क्या मिला है
और क्या सामान जोड़ा?
गेह का दिल तोड़ आए
सोच लो क्या-क्या मिला है
और क्या सामान जोड़ा?
छोड़कर पगडंडियाँ
पाषाण पथ अपना लिया।
गंध माटी भूलकर
साँसों भरी दूषित हवा।
पाषाण पथ अपना लिया।
गंध माटी भूलकर
साँसों भरी दूषित हवा।
प्रीत सपनों से लगाकर
पीठ अपनों को दिखाकर
नूर जिन नयनों के थे
क्यों नीर उनका ही निचोड़ा?
पीठ अपनों को दिखाकर
नूर जिन नयनों के थे
क्यों नीर उनका ही निचोड़ा?
है उधर आँगन अकेला
और तुम तन्हा इधर।
पूछती हर रहगुज़र है
अब तुम्हें जाना किधर।
और तुम तन्हा इधर।
पूछती हर रहगुज़र है
अब तुम्हें जाना किधर।
मिला जिनसे राज चोखा
दे दिया उनको ही धोखा?
विष पिलाया विरह का
वादों का अमृत घोल थोड़ा।
दे दिया उनको ही धोखा?
विष पिलाया विरह का
वादों का अमृत घोल थोड़ा।
भूल बैठे बाग, अंबुआ
की झुकी वे डालियाँ।
राह तकते खेत, गेहूँ
की सुनहरी बालियाँ।
की झुकी वे डालियाँ।
राह तकते खेत, गेहूँ
की सुनहरी बालियाँ।
त्यागकर हल-बैल-बक्खर
तोड़ते हो आज पत्थर
सब्र करते तो समय का
झेलते क्यों क्रूर कोड़ा।
तोड़ते हो आज पत्थर
सब्र करते तो समय का
झेलते क्यों क्रूर कोड़ा।
■ कल्पना रामानी
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।। सात ।।
।। खेतों ने ख़त लिखा ।।
•••
खेतों ने ख़त लिखा सूर्य को
भेजो नव किरणों का डोला।
हम तो हिमयुग झेल चुके
अब ले जाओ कुहरा भर
झोला।
•••
खेतों ने ख़त लिखा सूर्य को
भेजो नव किरणों का डोला।
हम तो हिमयुग झेल चुके
अब ले जाओ कुहरा भर
झोला।
कुंद हुई सरसों की धड़कन
पाले ने उसको है पीटा
ज़िंदा है बस इसी आस में
धूप मारने आए छींटा
पाले ने उसको है पीटा
ज़िंदा है बस इसी आस में
धूप मारने आए छींटा
धडक उठेंगी फिर से साँसें
ज्यों मौसम बदलेगा
चोला।
ज्यों मौसम बदलेगा
चोला।
देखो उस टपरी में अम्मा
तन से तन को ताप रही है
आधी उधड़ी ओढ़ रजाई
खींच-खींच कर नाप रही है
तन से तन को ताप रही है
आधी उधड़ी ओढ़ रजाई
खींच-खींच कर नाप रही है
जर्जर गात, कुहासा कहरी
वेध रहा बनकर
हथगोला
वेध रहा बनकर
हथगोला
खोलो अपनी बंद मुट्ठियाँ
दो हाथों से धूप लुटाओ
शीत फाँकते जन जीवन पर
करुणानिधि! करुणा बरसाओ
दो हाथों से धूप लुटाओ
शीत फाँकते जन जीवन पर
करुणानिधि! करुणा बरसाओ
देव! छोड़ दो अब तो होना
पल में माशा, पल में
तोला।
पल में माशा, पल में
तोला।
■ कल्पना रामानी
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।। आठ ।।
।। हैरान कुदरत ।।
तुम पथिक, आए कहाँ से
ठौर किस तुमको ठहरना?
इस शहर के रास्तों पर
कुछ सँभलकर
पाँव धरना।
ठौर किस तुमको ठहरना?
इस शहर के रास्तों पर
कुछ सँभलकर
पाँव धरना।
बात कल की है, यहाँ पर
कत्ल जीवित वन हुआ था।
जड़ मशीनें जी उठी थीं
और जड़ जीवन हुआ था।
कत्ल जीवित वन हुआ था।
जड़ मशीनें जी उठी थीं
और जड़ जीवन हुआ था।
देख थी हैरान कुदरत
रात का दिन में
उतरना।
रात का दिन में
उतरना।
जो युगों से थे खड़े
वे पेड़ धरती पर पड़े थे।
उस कुटिल तूफान से, तुम
पूछना कैसे लड़े थे।
वे पेड़ धरती पर पड़े थे।
उस कुटिल तूफान से, तुम
पूछना कैसे लड़े थे।
याद होगा हर दिशा को
डालियों का वो
सिहरना।
डालियों का वो
सिहरना।
घर बसे हैं अब जहाँ
लाखों वहीं बेघर हुए थे।
बेरहम भूकम्प से सब
बे-वतन वन चर हुए थे।
लाखों वहीं बेघर हुए थे।
बेरहम भूकम्प से सब
बे-वतन वन चर हुए थे।
खिल खिलाहट आज है, कल
था यहीं पर अश्रु
झरना।
था यहीं पर अश्रु
झरना।
हो सके, उनको चढ़ाना
कुछ सुमन संकल्प करके।
कुछ वचन देकर निभाना
पूर्ण काया-कल्प करके।
कुछ सुमन संकल्प करके।
कुछ वचन देकर निभाना
पूर्ण काया-कल्प करके।
याद में उनकी पथिक! तुम
एक वन आबाद
करना।
एक वन आबाद
करना।
■ कल्पना रामानी
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कवयित्री कल्पना रामानी के नवगीतों पर 'संवेदनात्मक आलोक' समूह के केंद्रित अंक 'आज का रचनाकार' में समूह की कुछ महत्वपूर्ण टिप्पणियाँ।
टिप्पणी
।। चित्रा चौधरी राजस्थान।।
।। चित्रा चौधरी राजस्थान।।
आदर.दहिया जी को सर्वप्रथम आभार उनकी खोज के लिए ,उनके सामान्य से इतर काम काज के ढंग के लिए । जिस तरह से आपने कल्पना रामानी जी को ढूंढ निकाला है और समूह से जोड़ा है,उसके लिए आपके दृष्टिकोण की, मै ह्रदय से प्रशंसा करती हूँ ।कल्पना जी को पढ़ कर मन कुछ पीछे चला गया, जिस दौर में हम बहुत कुछ खो रहे थे ।
कल्पना जी सच्चे अर्थो में प्रकति की कवियत्री हैं उनके आह्वान भी इसी प्रकृति को बचाये रखने के हैं।आह ! उनके शब्द जब वे बारिशों का इंतजार कर रहीं हैं, सब्जियों के बीज बोकर, जब धूप को बुला लाना चाह रही हैं, महानगरीय जीवन के भोगे संत्रास को आत्मीय जन/मेहमान की आमद से होती कठिनाइयों से जोड़ रहीं हैं। उनकी पैनी नजर घर में चकरघिन्नी बने हाथों पर ही नहीं उन मूक पंछियों पर भी हैं जो शिकारी के जालों में फंस सकते हैं । कवियों और लेखकों की
अपनी सीमाएँ हैं जहाँ तक वे रूपकों के माध्यम से कथ्य जोड़ सकते हैं। उसे अवश्य फैलाते हैं। कल्पना जी अपनी रचनाओं में वह कार्य किया है उन्हें हार्दिक बधाई। गाँवों की जिस कल्पना को वे शब्द दे रही हैं अब ऐसा वहाँ कुछ नहीं मिलता आखिरी पंक्ति में खुद शायद इसीलिये लिख भी दिया कि बस इन गीतों में ही गाँव बचे हैं। ऐसे सच्चे विवरणों को गीत/कविताओं में ढालने के लिए हमें कल्पना रामानी जी की ह्रदय से प्रशंसा करनी चाहिये। जंगलों को बचाने की चिंता होनी ही चाहिये। अपनी बर्बरता को रोकने के लिये वनों को आबाद करने की मुहिम चलायें तब भी यह सब कुछ सम्भव हो सकेगा।
दिनाँक 30/3/2016
अपनी सीमाएँ हैं जहाँ तक वे रूपकों के माध्यम से कथ्य जोड़ सकते हैं। उसे अवश्य फैलाते हैं। कल्पना जी अपनी रचनाओं में वह कार्य किया है उन्हें हार्दिक बधाई। गाँवों की जिस कल्पना को वे शब्द दे रही हैं अब ऐसा वहाँ कुछ नहीं मिलता आखिरी पंक्ति में खुद शायद इसीलिये लिख भी दिया कि बस इन गीतों में ही गाँव बचे हैं। ऐसे सच्चे विवरणों को गीत/कविताओं में ढालने के लिए हमें कल्पना रामानी जी की ह्रदय से प्रशंसा करनी चाहिये। जंगलों को बचाने की चिंता होनी ही चाहिये। अपनी बर्बरता को रोकने के लिये वनों को आबाद करने की मुहिम चलायें तब भी यह सब कुछ सम्भव हो सकेगा।
दिनाँक 30/3/2016
।। चित्रा चौधरी राजस्थान ।।
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टिप्पणी
■ डॉ.राकेश सक्सेना, एटा।
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टिप्पणी
■ डॉ.राकेश सक्सेना, एटा।
ग्रामीण संस्कृति, प्रकृति व उसके परिवेश में रचे -बसे कल्पना रामानी के नवगीत मन को भा गए, उनके कथ्य में सादगी है। घर के छत की मुंडेर पर कौए का बोलना परदेशी के आगमन से जोड़कर देखा जाता है, किन्तु विपन्नता की स्थिति में आव भगत कैसे हो ? बड़े ही सहज भाव से वे कह जाती हैं - - कागा रे ! मुंडेर छोड़ दे, मत मेहमान पुकार। आज अधिकांश लोग गाँव से शहर की ओर पलायन कर रहे हैं। वे श्रमिक से प्रश्न करती हैं। भूल बैठे, बाग अंबुआ की झुकी वे डालियाँ। राह तकते खेत गेहूँ की सुनहरी बालियाँ ।। कथ्य व शिल्प संपुष्ट है ।व्याधिग्रस्त होने पर भी ऐसा सुंदर सृजन।कवयित्री की रचनाधर्मिता को सलाम एवं आदर. रामकिशोर दाहिया जी की खोज को व उनके नवगीतों का रसास्वादन कराने हेतु कोटिश:आभार ।
दिनाँक 30/3/2016
दिनाँक 30/3/2016
■ डाॅ0 राकेश सक्सेना,एटा।
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टिप्पणी
■ डॉ.सुभाष वसिष्ठ
नई दिल्ली।
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टिप्पणी
■ डॉ.सुभाष वसिष्ठ
नई दिल्ली।
प्रिय श्री दाहिया जी,सर्वप्रथम आपको धन्यवाद, कि आपने आज के विशेषांक के लिए कल्पना रामानी जी को खोजा और उनके नवगीत समूह पटल पर चर्चार्थ प्रस्तुत किये।आपने लिखा तो मालूम हो गया कि वह आंशिक विकलांग हैं। प्रस्तुत-नवगीत-शब्द तो यह बता रहे हैं कि वह पूरी तरह चेतना-सम्पन्न नवगीत-कवयित्री हैं। यहां आवश्यक नहीं कि औपचारिक शिक्षा-सम्पन्न ही काव्य-चेतना सम्पन्न हो। प्रकृति, मौसम, खेत, गाँव, शहर व सम्बन्धित यथार्थ-जीवन के नवगीत हैं कल्पना जी के।छूटने पर, गाँव का अपनों से ही नातों का बे-नाता होने के उल्लेख हैं।सपनों से लदे शहर आने पर, वहाँ के जटिल यथार्थ से सामना करने के वास्तविक चित्र हैं।विपन्नता का कैसा...एक ख़राब से भाव को जन्म देता...अंकन है ...कि कागा से मुंडेर छोड़ देने व अतिथि को न पुकारने का निरीह निवेदन है।वाह! बरसात के आने से पूर्व, घरेलू स्त्री के उससे चीज़ों को बचाने के स्वाभाविक सक्रियता के विवरण हैं। घर के गणित से नवगीत लिखने की गाथा है। असल में ये नवगीत लगता है कि नवगीत हैं ही नहीं, ऐसा लगता है कि, गाँव, शहर, घरबार का वास्तविक जीवन, बस, ज्यों के त्यों सामने रख दिया हो जैसे उन्होंने श्लाघ्य। अच्छे नवगीत हैं।जीवन-सम्बद्ध कथ्य और सुबोध सम्प्रेष्य शिल्प/अभिव्यक्ति। कवयित्री कल्पना रामानी जी को साधुवाद। दिनाँक 30 मार्च 2016
■ डॅा० सुभाष वसिष्ठ नई दिल्ली।
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टिप्पणी
■ मनोज जैन 'मधुर'
भोपाल मध्य प्रदेश।
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टिप्पणी
■ मनोज जैन 'मधुर'
भोपाल मध्य प्रदेश।
'संवेदनात्मक आलोक' की अनूठी प्रस्तुति में आज कल्पना रामानी जी के आठ नवगीत पटल चर्चार्थ प्रस्तुत हैं। आप किसी भी कोण से प्रस्तुत नवगीतों का मूल्यांकन करें अंतयोगत्वा आपका अंतर्मन वाह! कह ही उठता है वाह! का यह कमाल मुझे उनके आठों नवगीतों में लगा वे महानगर की जीवन शैली के बावज़ूद भी जनमानस की संवेदना को अपने गीतों में जीती हैं, उनके गीतों का फलक व्यापक है। मैं उन्हें 'क्रूर कोड़ा' और 'घर का गणित' नवगीत से ज्यादा याद रखूंगा
।। उड़ परिंदे ।।
कल्पना रामानी जी आपका यह गीत
मन के कोने में सदा-सदा के लिए बस गया •••उड़ परिंदे!
आ रहा पीछे शिकारी।
मन के कोने में सदा-सदा के लिए बस गया •••उड़ परिंदे!
आ रहा पीछे शिकारी।
देख उसके हाथ में वो जाल है।
जेब है फूली, मगर कंगाल है।
तू धनी, संतुष्ट मन तेरा सदा
वो सदा ही भूख से बेहाल है।
जेब है फूली, मगर कंगाल है।
तू धनी, संतुष्ट मन तेरा सदा
वो सदा ही भूख से बेहाल है।
अरे, चल दे!
पंख नोचेगा भिखारी।
पंख नोचेगा भिखारी।
जीव हत्या उस वधिक का लक्ष्य है।
जीव का ही रक्त उसका भक्ष्य है।
आसमाँ तेरा, सदा आज़ाद तू
जा वहाँ जिस छोर पर तू रक्ष्य है।
जीव का ही रक्त उसका भक्ष्य है।
आसमाँ तेरा, सदा आज़ाद तू
जा वहाँ जिस छोर पर तू रक्ष्य है।
जाग बंदे!
वरन कटने की है बारी।
वरन कटने की है बारी।
जाल में दाने बिछाकर वो खड़ा।
मौत की दावत तुझे देने अड़ा।
देख लालच में न आना जान ले।
धूर्त,पापी, है कुटिल कातिल बड़ा।
मौत की दावत तुझे देने अड़ा।
देख लालच में न आना जान ले।
धूर्त,पापी, है कुटिल कातिल बड़ा।
उस दरिंदे
की सदा खाली पिटारी।
की सदा खाली पिटारी।
सम्माननीय मंच का आभार और प्रमुख एडमिन आदर.रामकिशोर दाहिया जी जो ऐसी सुयोग्य प्रतिभा से परिचय का सुयोग बनाया। मेरी हृदय से उन्हें हार्दिक बधाई। दि.30/3/16
■ मनोज जैन 'मधुर'
भोपाल मध्य प्रदेश।
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भोपाल मध्य प्रदेश।
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